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जानिए हिंदी साहित्य के इस मस्तमौला साहित्यकार की अनसुनी कहानियां...

हिंदी साहित्य के महान कवि और छायावाद के प्रमुख स्तंभों में से एक सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जीवन जितना संघर्षपूर्ण था, उतना ही स्वाभिमानी भी। अपने बेबाक स्वभाव और विद्रोही तेवर के लिए मशहूर निराला ने साहित्य के साथ-साथ समाज और राजनीति में भी अपनी अलग पहचान बनाई। चाहे वह महात्मा गांधी से विचारों का टकराव हो या पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रति उनकी बेबाक टिप्पणी, उन्होंने हमेशा अपनी बात पूरी स्पष्टता और निर्भीकता से रखी।

महात्मा गांधी से सीधी बहस

साल 1936, एक साहित्यिक समारोह के दौरान महात्मा गांधी ने कहा कि "हिंदी साहित्य में एक भी रविंद्रनाथ टैगोर जैसा लेखक नहीं हुआ है।" यह सुनते ही निराला से रहा नहीं गया। उन्होंने तुरंत गांधीजी से पूछा, "क्या आपने पर्याप्त हिंदी साहित्य पढ़ा है?" गांधीजी ने स्वीकार किया कि उन्होंने हिंदी साहित्य का अधिक अध्ययन नहीं किया है। इस पर निराला ने बेझिझक कहा, "तो फिर आपको मेरी भाषा हिंदी के बारे में बात करने का अधिकार किसने दिया?" यह घटना साबित करती है कि निराला न केवल हिंदी भाषा के प्रति समर्पित थे, बल्कि उसके सम्मान के लिए किसी से भी टकराने के लिए तैयार रहते थे।

जब प्रधानमंत्री नेहरू से मिलने से इनकार किया

निराला के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से भी मतभेद थे। वे उनके पश्चिमी जीवनशैली और सोच के कट्टर आलोचक थे। एक बार जब नेहरू इलाहाबाद आए, तो उन्होंने निराला से मिलने का संदेश भेजा। लेकिन निराला ने जवाब दिया,
"अगर भाई जवाहर बुलाए तो मैं नंगे पांव चला जाऊं, लेकिन प्रधानमंत्री नेहरू से मिलने नहीं जाऊंगा!" आखिरकार, खुद नेहरू को ही निराला से मिलने उनके घर जाना पड़ा। यह घटना उनकी स्वाभिमानी प्रवृत्ति और सत्ताधारियों से बेखौफ रहने वाले व्यक्तित्व को दर्शाती है।

साहित्य के अनमोल योगदान

निराला का साहित्यिक सफर हिंदी कविता को नए आयाम देने वाला रहा। उन्होंने छायावाद को एक सशक्त पहचान दी। उनकी प्रमुख काव्य-कृतियों में "अनामिका" (1923), "परिमल" (1930), "गीतिका" (1936), "तुलसीदास" (1939), "कुकुरमुत्ता" (1942), "बेला" (1946) और "आराधना" (1953) शामिल हैं।

उनके कहानी-संग्रहों में "लिली", "सखी" और "सुकुल की बीवी", जबकि उपन्यासों में "कुल्ली भाट" और "बिल्लेसुर बकरिहा" को विशेष प्रसिद्धि मिली। इसके अलावा, उनके निबंधों का संग्रह "चाबुक" भी हिंदी साहित्य में अपनी अलग पहचान रखता है।

आखिरी वक्त में उपेक्षित जीवन

निराला, जिन्होंने हिंदी साहित्य को अमर कृतियां दीं, उनके अंतिम दिन बेहद संघर्षपूर्ण रहे। जब 15 अक्टूबर 1961 को उनकी मृत्यु हुई, तो उनकी संपत्ति के नाम पर केवल रामनामी और गीता मिली। यह एक ऐसा कटु सत्य था, जो बताता है कि हिंदी साहित्य का यह महान स्तंभ अंत समय में अकेलेपन और आर्थिक संकट से जूझता रहा।

इतिहास में अमर रहेंगे निराला

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जीवन हमें सिखाता है कि साहित्यकार सिर्फ लेखनी से ही नहीं, बल्कि अपने व्यक्तित्व से भी समाज को दिशा देता है। उन्होंने अपने आत्मसम्मान और सिद्धांतों के साथ कभी समझौता नहीं किया और हिंदी साहित्य को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। उनके योगदान को हिंदी साहित्य में हमेशा अमर माना जाएगा।

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